Saturday 13 August 2011

अपनी भाषाएँ

जैसे लोग नहाते समय आमतौर पर कपड़े उतार देते हैं वैसे ही गुस्से में लोग अपने विवेक और तर्क बुद्धि को किनारे कर देते हैं। कुछ लोगों का तो गुस्सा ही तर्क की सील टूटने के बाद शुरू होता है। बड़े-बड़े गुस्सैल लोगों के साथ यह सच साबित हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास ने लक्ष्मण जी के गुस्से का सौंदर्य वर्णन करते हुए लिखा है-
लक्ष्मणजी तमतमा उठे। उनकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं। ओंठ फड़कने लगे और आँखें गुस्से से लाल हो गयीं। गुस्से के लक्षण देखते ही उनकी तर्क बुद्धि ने उनसे समर्थन वापस ले लिया और वे बोले-यदि भगवान राम की आज्ञा पाऊँ तो ब्रह्मांड को गेंद की तरह उठा लूँ। उसे कच्चे घड़े की तरह फोड़ डालूँ। सुमेरू पर्वत को मूली की तरह तोड़ दूँ। जिस ब्रह्मांड में हम खड़े हैं उसे उठाने और घड़े के समान फोड़ देने की कल्पना केवल गुस्से में ही की जा सकती है। हम तो अपनी कुर्सी सहित अपने को उठाने की कल्पना करने में ही परेशान हो जाएँ।
मैंने आज तक जितने गुस्सैल लोग देखे हैं हमेशा उनके गुस्से को ऊर्जा के गैरपरम्परिक स्रोत की तरह पाया। अगर लोगों के गुस्से के दौरान निकलने वाली ऊर्जा को बिजली में बदला जा सके तो तमाम घरों की बिजली की समस्याएँ दूर हो जाएँ।
गुस्से में आदमी चाहे कोई भी भाषा बोले समझ में नहीं आती। लेकिन भारत में लोग गुस्सा करते समय और प्यार जताते समय अँग्रेजी बोलने लगते हैं। ऐसा शायद इसलिये होगा कि जो भाषा समझ में न आए उसमें अटपटी बातें बेझिझक कही जा सकती हैं। मुझे तो यह भी लगता है कि शायद भारत की भाषा नीति भी गुस्से के कारण बनी। आजादी के बाद लोग अँग्रेजों से बहुत खफ़ा रहे होंगे। अब अँग्रेज तो हमारी भाषाएँ सीखने से रहे। (जब हम ही नहीं सीखते तो वे क्या सीखेंगे? ) इसलिए उनके प्रति गुस्सा जाहिर करने के लिए लोगों ने अँग्रेजी का प्रयोग शुरू किया। सोचा होगा दस बीस साल में जब सारा गुस्सा खतम हो जाएगा तब अपनी भाषाएँ अपना लेंगे। लेकिन अँगेजी अब मुँहलगी हो गई, कम्बख्त छूटती ही नहीं।

रक्षाबंधन

भारतीय संस्कृति के सबसे बड़े परिचायक हैं हमारे पर्व और त्यौहार. यहां हर महीने और हर मौसम में कोई ना कोई ऐसा त्यौहार होता ही है जिसमें देश की संस्कृति की झलक हमें देखने को मिलती है. त्यौहारों का यह देश अपनी विविधता में एकता के लिए ही विश्व भर में अपनी पहचान बनाए हुए है. आज हमारे देश का एक बहुत ही अहम त्यौहार है रक्षाबंधन.

आज यह त्यौहार हमारी संस्कृति की पहचान है और हर भारतवासी को इस त्यौहार पर गर्व है. लेकिन भारत जहां बहनों के लिए इस विशेष पर्व को मनाया जाता है वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भाई की बहनों को गर्भ में ही मार देते हैं. आज कई भाइयों की कलाई पर राखी सिर्फ इसलिए नहीं बंध पाती क्यूंकि उनकी बहनों को उनके माता-पिता इस दुनिया में आने से पहले ही मार देते हैं. यह बहुत ही शर्मनाक बात है कि देश में कन्या-पूजन का विधान शास्त्रों में है वहीं कन्या-भ्रूण हत्या के मामले सामने आते हैं. यह त्यौहार हमें यह भी याद दिलाता है कि बहनें हमारे जीवन में कितना महत्व रखती हैं. अगर हमने कन्या-भ्रूण हत्या पर जल्द ही काबू नहीं पाया तो मुमकिन है एक दिन देश में लिंगानुपात और तेजी से घटेगा और सामाजिक असंतुलन भी. भाई-बहनों के इस त्यौहार को जिंदा रखने के लिए जरूरी है कि हम सब मिलकर कन्या-भ्रूण हत्या का विरोध करें|

हम आशा करते हैं कि रक्षाबंधन का यह त्यौहार हमेशा इसी हर्षोल्लास के साथ मनाए जाएगा और देश की संस्कृति में यह त्यौहार इसी तरह नगीने की तरह चमकता रहेगा |

Tuesday 24 May 2011

आशावादी बनिए पलायनवादी नहीं



 ( लेखिका- विनीता तिवारी )
आशावाद जीवन    में सकारात्मकता का प्रसार करता है लेकिन कोरा आशावाद आपको पलायनवादी भी बना सकता है। अतः यह जरूरी है कि आप आशावादी तो बनें लेकिन यथार्थवाद तथा कर्मठता की जमीन पर खड़े होकर।

'जो होता है भले के लिए ही होता है' या 'धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा', इसी तरह के अनेक वाक्य आपने सुने होंगे पर यह एक आशावादी दृष्टिकोण नहीं कहा जा सकता। आपने देखा या सुना होगा कि लंबी-लंबी टाँगों वाले शुतुरमुर्ग को जब कोई दुश्मन खदेड़ता है तो वह उससे बचने के लिए अपना सिर जमीन खोदकर मिट्टी में धँसा देता है। ऐसा करके वह आश्वस्त हो जाता है कि अब दुश्मन उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता और वह पूर्णतः सुरक्षित है। कोरे आशावादी व्यक्ति का नजरिया भी काफी कुछ ऐसा ही होता है। इसे शायद आशावादी भी नहीं बल्कि पलायनवादी कहेंगे।

जिंदगी को सफल ढंग से जीने के लिए हमें आशावादी होने के साथ व्यावहारिक एवं यथार्थवादी भी होना पड़ेगा। जो व्यवहारकुशल होगा, वह यह अच्छी तरह जानेगा कि इस दुनिया में दुख, कठिनाई, अवसाद आदि सच्चाई है। यहाँ कभी खुशी है, कभी गम। इस किस्म के आशावादी अपनी असफलताओं को भी स्वीकारते हैं। जब एक रास्ता बंद हो जाता है, तो वे दूसरा रास्ता अतिशीघ्र खोज लेते हैं।
जीवन के प्रति हम सभी इसी तरह का रवैया अपना सकते हैं। कुछ सुझाव आपको एक दृढ़, सक्षम, आशावादी बनाने में कारगर साबित होंगे।
दूरदर्शी बनें : 'धीरे-धीरे समय सब ठीक कर देगा' जैसी धारणा लेकर चलना ठीक नहीं है। जो लोग सिर्फ आशावादी होते हैं, वे प्रायः जीवन में आने वाली समस्याओं से अनजान बने रहते हैं। इसीलिए उनमें दूरदर्शिता का अभाव होता है। अतः आप जब भी कोई निर्णय लें, परिस्थितियों को अवश्य जान लें। यह सोच लें कि आपको कार्य करने में कौन-सी बाधाएँ आएँगी तथा उनसे कैसा निपटा जा सकता है। किसी कार्य को करने के लिए अनेक विकल्प मन में पहले ही सोच लें। यदि एक उपाय विफल होता है तो दूसरा तरीका अपनाएँ।

प्रयत्न जारी रखें : सच्चे आशावादी कोशिशों से कभी जी नहीं चुराते। नित नई जानकारी लो, सीखो, काम में अरुचि पैदा मत होने दो, नहीं तो जीवन रसहीन और बेमजा लगने लगता है और निराशा बढ़ने लगती है।
जो लोग जिंदगी की तमाम परेशानियों के बीच भी स्व-उत्थान के लिए समय निकाल लेते हैं, उनका जीवन खुशहाल होता है। कुछ न कुछ सीखने की प्रक्रिया जारी रखनी चाहिए जैसे कविता, कहानी, लेख लिखें, पेंटिंग करें, स्वीमिंग करें, बागवानी करें, कोई समाजसेवी संस्था ज्वॉइन करें।

प्रेरणादायक व्यक्तियों से नाता जोड़ें : अपना अधिकांश समय आशावादी व्यक्तियों के साथ बिताएँ। ऐसे मित्र हमें हमारी खूबियों से परिचित कराते हैं। एक सशक्त आशावादी व्यक्ति बनकर आप अपने निराशावादी मित्रों को भी इस गर्त से निकाल सकते हैं।

आध्यात्मिक पहलू पर भी बल दें : अपने जीवन में आध्यात्मिकता को भी बराबर का स्थान प्रदान करें। उच्च कोटि का साहित्य पढ़ें। कुछ समय चिंतन, मनन, ध्यान को दें। अध्यात्म वास्तव में आत्म ज्ञान ही है, वह व्यक्ति को अधिक उत्साही और आशावादी बनाता है।

दिनचर्या में भी परिवर्तन करें : परिवर्तन से जिंदगी और संबंधों दोनों में ताजगी बनी रहती है। नए लोगों से मिलें, किसी होटल में खाना खाएँ, आसपास घूम आएँ, नई पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ें, योजना बनाएँ पर यथार्थ के धरातल पर। कुछ रातें देर तक जागें, कभी जल्दी भी बिस्तर छोड़ दें। दिमाग को तरोताजा रखने के लिए परिवर्तन जरूरी है।

यदि आप कोरे आशावादी हैं तो इन सुझावों को अपनाकर देखिए। इनकी मदद से आप एक यथार्थवादी व कर्मठ आशावादी बन सकेंगे।

माँ तो सबकी एक-जैसी होती है

माँ तो सबकी एक-जैसी होती है

बस से उतरकर जेब में हाथ डाला। मैं चौंक पड़ा मै दन्ग रह गया ।मेरी जेब कट चुकी थी। जेब में था भी क्या? कुल मिलाकर नौ रुपए और एक खत, जो मैंने अपनी माँ को लिखा था किमेरी नौकरी छूट गई है; अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा। तीन दिनों से वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था। पोस्ट करने को मन ही नहीं कर रहा था। नौ रुपए जा चुके थे। यूँ नौ रुपए कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लिए नौ रुपए नौ सौ से कम नहीं होते। कुछ दिन गुजरे। माँ का खत मिला। पढ़ने से पूर्व मैं सहम गया। जरूर पैसे भेजने को लिखा होगा।लेकिन, खत पढ़कर मैं हैरान रह गया। माँ ने लिखा था—“बेटा, तेरा पचास रुपए का भेजा हुआ मनीआर्डर मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे!पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता।मैं इसी उधेड़-बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीआर्डर किसने भेजा होगा? कुछ दिन बाद, एक और पत्र मिला। चंद लाइनें थींआड़ी-तिरछी। बड़ी मुश्किल से खत पढ़ पाया। लिखा था—“भाई, नौ रुपए तुम्हारे और इकतालीस रुपए अपनी ओर से मिलाकर मैंने तुम्हारी माँ को मनीआर्डर भेज दिया है। फिकर न करना।माँ तो सबकी एक-जैसी होती है न। वह क्यों भूखी रहे?…
 तुम्हाराजेबकतरा भाई




Monday 23 May 2011

आशावाद

 ज़ो सफ़र की शुरुआत करते है ,
 
                 वोही मंजिल को पार करते है,

                          एक बार चलने का होसला रखो मेरे यार, 

                                                          आप जैसे मुसाफ़िरो का तो ,
                                                                                                                                                                 
                                       रास्ते भी इन्तजार  करते  है !!!                                                                                                                                                                                                                   व्यक्ति जीवन में मनवांछित सफलता हासिल कर पाता है, जो आशावादी होता है। जब तक किसी व्यक्ति के मन में उम्मीद नहीं होगी, वह कोई काम नहीं कर सकता। आशावादी व्यक्तियों में रचनात्मकता, कार्य करने की क्षमता और शक्ति होती है।ऐसे लोग काम में निरंतर जुटे होने पर भी हरदम प्रसन्नचित्त रहते हैं, लेकिन निराशावादी व्यक्ति की निराशा उसकी संपूर्ण शक्ति और क्षमता को समाप्त कर देती है। वह कभी प्रसन्न नहीं रह सकता। ऐसा व्यक्ति हर समय उदास और दु:खी रहता है और यही उसके प्रगति-पथ की सबसे बड़ी बाधा बन जाती है।
आशा जीवन में एक प्रकाशपुंज के समान है जो जीवन की उकताहट और उदासी को दूर करती है और मार्ग में आने वाली बाधाओं व संकटों का सामना करने की शक्ति प्रदान करती है। आशा ही जीवन को सरस व मधुर बनाती है।
दो व्यक्तियों को लें, जिनमें एक आशावादी और दूसरा निराशावादी हो। आप पाएंगे कि भले ही उनमें समान योग्यताएं हों, लेकिन आशावादी शख्स निराशावादी व्यक्ति की अपेक्षा अधिक काम कर सकता है। उसका शरीर सदैव स्वस्थ रहता है, जबकि निराशावादी व्यक्ति का शरीर चिंतित और चिड़चिड़ा रहने के कारण अस्वस्थ रहता है। उसका मन किसी काम में नहीं लगता। उसके शरीर रूपी मशीन के पुर्जे जल्दी ही घिस जाते हैं।
एक प्रसिद्ध विचारक का कहना था कि उसने अब तक जिन व्यक्तियों को सफल होते देखा, वे हमेशा प्रसन्नचित्त और आशावान रहा करते थे। किसी भी काम को करते समय उनके मुख पर आशावाद से भरी जो मुस्कान खेलती रहती थी, उसी के कारण वे अवसर का लाभ उठाते हुए सफलता प्राप्त करते गए। उन्होंने कठोरता को कठोर बनकर सहन किया और कोमलता के प्रति उनके अंतर में सदैव कोमलता ही रही।
                        आशावादी बने…… और प्रगति के पथपर अग्रसर रहे।

Wednesday 18 May 2011

सत्य  जीवन सफलता की  कुंजी    (संकलन)


           'सत्यम शिवम सुन्दरम' यानी सत्य ही शिव या ईश्वर है ओर सच बोला अति सुन्दर है .,  सत्य शब्द से ही मानव जीवन में एक श्रद्धा की महक आती है, सत्य शब्द कहना ओर सुनना जितना आसन है , उतना ही इसको अपने जीवन में उतारना बहुत  मुश्किल है , मगर जब यह सत्य शब्द इस मानव जीवन में उतर  जाता है  तब यह जीवन आनंदमय हो जाता है और खुशिया अपने आप ही इंसान को घेर लेती है . बचपन में हमेशा बच्चे को सच बोलने का पाठ पढ़ाया जाता है ओर कहा जाता है सच बोलना सही है ओर झूठ बोलना पाप है .मगर इसके लिए सबसे पहले इस निरंकार के ब्रहम-ज्ञान का  बोध होना आवश्यक है इस ब्रहम-ज्ञानं को अपने जीवन में ढाल कर  ओर संतो महापुरुष  के संग में  रहकर  सत्य को अपने जीवन में कबूल किया जाता है , क्योंकि सत्य ही  इस निरंकार को प्राप्त करने की सीढ़ी है , जब तक इंसान में सत्य की भावना का विकास नही होता है , तब तक इंसान  नफरत, वेर , अहंकार , निंदा , काम, झूठ , दूसरो को नीचा दिखाना , लालसा , मोह आदि जैसे  दानवो से घिरा रहता है , ओर इस निरंकार -परमात्मा की लीला को भी अपने जीवन में कबूल नही करता है 
           " एक ही निरंकार प्रभु है , सच्चा केवल जिसका नाम 
              कर्ता-धर्ता हर वस्तु का, रचा है जिसने जगत तमाम " 
 सत्य है क्या , यह निरंकार ही सत्य है , बाकी सब झूठ है , यदि इंसान इसको  जान लेता है तो वह भी परमानंद को अपने जीवन में महसूस करता है , क्योंकि इस संसार में सब चीज़े मायावी है , जिनका अंत किसी ना किसी समय होना जरूरी है , मगर यह निरंकार प्रभु का कोई भी अंत नही है ,परम सता जिसको निराकार , अकालपुरख कहा जाता है यह ही सत्य है, इस सत्य का बोध हासिल करना महापुरुषों ने लाजिम बताया है  " आदि सचु , जुगादि सचु , है भि सचु, नानक होसी भि सचु.
येही सत्य है जो कल भी था , आज भी है , ओर आगे भी कायम रहना वाला है  इसमें कोई भी  बदलाव होने वाला नही  , यह सर्वत्र परम सता है  यह तो सर्वव्यापी है , जो  हर जगह मोजूद  है , कण-कण में इसका वास है , जरे-जरे में यह निरंकार है , जब इंसान इस बात  को सत्य मान  लेता है , तब इस मानव जीवन में एक  क्रांति आती है , जो उसको इस परमात्मा के बिलकुल करीब कर देती जब वह इस निरंकार प्रभु को अपने संग समझता है , ओर हर पल इस निरंकार का ओर उसकी लीला के लिए शुकराना करता है ,एक प्रभु, परमात्मा , ईश्वर, वाहे-गुरु को ही अनेको नामो से पुकारते है , इसको को ही सत्य माना गया है  जो हमेशा हमारे पास है . इसके विपरीत जो कुछ भी यह आँखे देख रही है , वह असत्य है  " जगत की शोभा वे बनते है , जो सच को मानकर गुरु के वचनों को अपने जीवन में अपनाते है " लहरों का उचा -नीचा उठना तो हम देखते है , लेकिन समुन्दर का अपने आप में जो वजूद है, वो उसी प्रकार बना हुआ है , यदि लहरें है तब भी समुन्दर है , यदि लहरें नही है तब भी समुन्दर अपना जगह पर है . ये ही सत्य है ओर कोई पहलु सत्य नही हो सकता है . जब संत लोग इस सत्य को जानकर इस निरंकार को हासिल कर लेते ओर उसके भाणे में अपने जीवन का सफ़र पूरा करते हैं तब भवसागर को बिना मुसीबत से पार  करते है .
ज़िन्दगी का एक अटल सत्य यह भी है कि जो इस संसार में आया है वह जाएगा भी, जिस  काम के लिए हमें इस निरंकार ने भेजा है उस काम को पूर्ण होते ही हमें इस निरंकार के दरबार में जाना पड़ता है , ओर जो यह शरीर पाच तत्वों से बना है इसमें  ही  लीन हो जाता है   इस लिए  निरंकार- सतगुरु बाबा जी  को हम अपना तन, मन या धन सौप देना चाहिए , तब हमारा ख्याल यह निरंकार रखता है, एक बात यह भी सत्य है कि जो निरंकार के प्यारे होते है , उनको खुद यह निरंकार -प्रभु  अपने आप लेने आता है   चाहे हमें अच्छा लगे या ना लगे पर एक दिन इस जीवन का अंत होगा ही , कबीर जी ने कहा है 
कि :-
                 " आया है जो जायेंगा , राजा रंक फकीर 
                   एक सिंहासन चढ़ी चले, दूजे बंधे जंजीर" 
              सत्य बोलने से जीवन में नम्रता का भाव, विश्वास , वाणी में मिठास आती है सत्संग वह तरीका है जिससे सेवा ओर सिमरन के वरदान से सत्य बोलने की सहज प्रकिया प्रबल होती रहती है
साध-संगत में जब सतगुरु के ओर संतो के वचन या आशीर्वाद आते है, वह अटल सत्य होते है, यदि उनके वचनों को हम अपने जीवन में ढाले तो वह  ऐसा कोई अवसर नही जब हमारे जीवन में खुशिये के खेड़े ना हो. ओर हमारा जीवन आनंदमय ना हो . इसलिए हमेशा संत सत्य का  मार्ग दिखाते है , जिस मार्ग पर चलकर हम अपने इस जीवन के लक्ष्य  को प्राप्त कर सकते है संतो ने हमें सेवा, सिमरन ओर संगत वाला सत्य मार्ग दिखाया है, इस पर  चलकर हम इस निरंकार को इस जीवन  में ही हासिल कर सकते है ओर मोक्ष को प्राप्त कर सकते है इसी जीवन में , मगर इसके लिए सतगुरु का होना हमरे जीवन में अति-आवशक है , क्योंकि उनके आशीर्वादो के बिना यह हर कार्य असंभव  है , केवल ये ही जीवन का मार्गदर्शन है , जिससे हमारा मन  सत्य की ओर अग्रसर होता रहता है सत्य का आधार केवल संतो का संग होता है ,जो अपना मन सत्य रूप में सतगुरु के चरणों में  बेचता है , उसके  सारे काम यह सतगुरु  खुद करता  है ,
   कहा भी गया है : मन बेचै सतगुरु के पास, तिस सेवक के कारज रास
इसलिए इंसान को हमेशा याद कराया जा रहा की सतगुरु की शरण में आकर इस  निरंकार को (सत्य को) इस जीवन में प्राप्त कर लो जिस कार्य के लिए हमको इस परमपिता-ईश्वर ने  इस सत्य को जानने के लिए भेजा है येही संतो की वाणी है फिर जब समय इस सत्य को छोड़कर निकल जाएगा तब पछताने से कुछ नही होना है  :-  " राम नाम की लूट है , लूट सके तो लूट , अन्तकाल पछतायेगा, जब प्राण जायेंगे छूट"

लेखक : पवन कुमार कोहली, दिल्ली

पुष्प की अभिलाषा
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ
मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।।
- माखनलाल चतुर्वेदी

Tuesday 17 May 2011

आशा का दीपक / रामधारी सिंह "दिनकर"

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नही है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है

चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नही है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है

अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।
एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतन क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।